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बाजे पायलियाँ के घुँघरू

कन्हैयालाल मिश्र

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :228
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 422
आईएसबीएन :81-263-0204-6

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सहज, सरस संस्मरणात्मक शैली में लिखी गयी प्रभाकर जी की रचना बाजे पायलियाँ के घुँघरू।

सीता और मीरा !


भारतीय इतिहास में नारी-चरित्र के दो महान् पात्र हैं-सीता और मीरा। सीता सामाजिक मर्यादा का प्रतीक है और मीरा मर्यादा-भंग का। क्या ये दोनों नारी के स्वतन्त्र रूप हैं? दो होकर भी लगता है ये दोनों नारी-चरित्र का आदि अन्त हैं-एक ही तसवीर के दो पहलू हैं। सीता भी अपने में अपूर्ण और मीरा भी। ये दोनों मिलकर एक पूर्णता का रूप लेती हैं।

सीता का सन्देश है सामाजिक मर्यादाओं की अभंगता। समाज ने समाज के हित के लिए जो मर्यादाएँ रची और जिन्हें नागरिकों ने स्वेच्छा से समाज की समुन्नति के लिए स्वीकार किया, उन्हें पालने में सुख हो या दुःख, मान मिले या अपमान, नारी को उन्हें मानना है, पालना है, नहीं तोड़ना है, नहीं ही तोड़ना है।

सीता ने राम की स्मृति में रावण के स्वर्ग-राज्य पर लात मार दी। अशोक-वाटिका में ऐसी यातनाएँ सहीं, जो उस जैसी सुकुमारी के लिए ही नहीं, स्वयं रावण के लिए भी असह्य हो उठतीं, पर वह अडिग रही। राम के बिना उसके लिए सब कुछ निस्सार था, पर राम ने इस प्रेम-तप के बदले सीता को क्या दिया? समाज के सामने उसकी अग्नि-परीक्षा ली और इस अग्नि-परीक्षा के बाद भी एक मूर्ख धोबी के कहने पर गर्भिणी सीता को वन में धकिया दिया। सीता फिर भी अभंग रही।

क्या इसका यह अर्थ है कि उसने राम के इन कामों को पसन्द किया? वह ऐसी भोली न थी, उसने समझा कि वह निर्दोष है, फिर भी उसे दण्ड दिया गया है, पर उसने साथ ही यह भी समझा कि यह दण्ड राम के क्रोध का, उसकी क्षुद्रता का फल नहीं है। यह राम के समाज-विधान-रक्षक रूप का कर्तव्य-पालन है। उस दण्ड को उसने राम के कार्य में अपना सहयोग मानकर सहा और राम के प्रति अपनी निष्ठा को अखण्ड रखा। समाज ने पतिव्रत के रूप में नारी पर जो मर्यादाएँ लगायीं, सीता ने अन्याय सहकर भी उनकी रक्षा की। सीता का यह कष्ट समाज-विधान की रक्षा के लिए सहा गया तप था; जैसे गाँधी के युग में राष्ट्र की स्वतन्त्रता के लिए श्रीमती सरोजिनी नायडू और विजयलक्ष्मी पण्डित की जेल-यात्रा।

राम ने क्रोधवश, घृणावश, प्रतिहिंसावश, क्षुद्रतावश यह सब नहीं किया, अपने राष्ट्र की रक्षा के लिए ही यह कष्ट सहा। कष्ट सहा? हाँ ! सीता वन में रही तो वह घर को ही वन बनाकर रहा। उसके मन में सीता कभी लांछित नहीं हुई, अप्रिय नहीं हुई। वह उसकी याद में तड़फा, रोया, पर अभंग रहा। वह स्वयं नयी रानी ले आता तो पतित हो जाता। वह भी अडिग रहा, वह भी अडिग रही। दोनों ने व्यक्तिगत कष्ट सहकर भी समाज-मर्यादा की रक्षा की।

हम कह सकते हैं कि ड्यूक ऑव विण्डसर की तरह राम भरत को राज्य देकर और स्वयं सीता के साथ फिर से वनवासी होकर भी यही कर सकता था। ठीक है, पर उस युग की परिस्थितियाँ क्या थीं? जाने कब-कब से चला आ रहा दो संस्कृतियों का संघर्ष तभी राम के द्वारा समाप्त हुआ था और राम तब उस विजयी संस्कृति की छाया में एक नयी समाज-व्यवस्था की स्थापना में लगा था।

वह तब लगभग उस स्थिति में था, जिसमें 1921-22 में क्रान्ति-विजेता लेनिन था। एक प्राचीन समाज-व्यवस्था भंग हो चुकी थी और उसके स्थान में एक नवीन समाज-व्यवस्था स्थापित हो रही थी। तब राम ज़रा भी चूकता तो सारी क्रान्ति असफल हो जाती। क्या महान् राम यह सह पाता ! इससे मिलती-जुलती परिस्थितियों में महापुरुष कमालपाशा ने अपनी प्रिय पत्नी को तलाक़ दिया या नहीं? उसकी परित्यक्ता पत्नी जब महल से बिदा हुई तो कमाल उसे जाते हुए देख भी न सका-रूमाल आँखों पर रखे, अपने झरोखे के नीचे वह बैठा ही रह गया।

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    अनुक्रम

  1. उग-उभरती पीढ़ियों के हाथों में
  2. यह क्या पढ़ रहे हैं आप?
  3. यह किसका सिनेमा है?
  4. मैं आँख फोड़कर चलूँ या आप बोतल न रखें?
  5. छोटी कैची की एक ही लपलपी में !
  6. यह सड़क बोलती है !
  7. धूप-बत्ती : बुझी, जली !
  8. सहो मत, तोड़ फेंको !
  9. मैं भी लड़ा, तुम भी लड़े, पर जीता कौन?
  10. जी, वे घर में नहीं हैं !
  11. झेंपो मत, रस लो !
  12. पाप के चार हथियार !
  13. जब मैं पंचायत में पहली बार सफल हुआ !
  14. मैं पशुओं में हूँ, पशु-जैसा ही हूँ पर पशु नहीं हूँ !
  15. जब हम सिर्फ एक इकन्नी बचाते हैं
  16. चिड़िया, भैंसा और बछिया
  17. पाँच सौ छह सौ क्या?
  18. बिड़ला-मन्दिर देखने चलोगे?
  19. छोटा-सा पानदान, नन्हा-सा ताला
  20. शरद् पूर्णिमा की खिलखिलाती रात में !
  21. गरम ख़त : ठण्डा जवाब !
  22. जब उन्होंने तालियाँ बजा दी !
  23. उस बेवकूफ़ ने जब मुझे दाद दी !
  24. रहो खाट पर सोय !
  25. जब मैंने नया पोस्टर पढ़ा !
  26. अजी, क्या रखा है इन बातों में !
  27. बेईमान का ईमान, हिंसक की अहिंसा और चोर का दान !
  28. सीता और मीरा !
  29. मेरे मित्र की खोटी अठन्नी !
  30. एक था पेड़ और एक था ठूंठ !
  31. लीजिए, आदमी बनिए !
  32. अजी, होना-हवाना क्या है?
  33. अधूरा कभी नहीं, पूरा और पूरी तरह !
  34. दुनिया दुखों का घर है !
  35. बल-बहादुरी : एक चिन्तन
  36. पुण्य पर्वत की उस पिकनिक में

विनामूल्य पूर्वावलोकन

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